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Kritiyan-कृतियां

“शब्दों में बसता है जीवन का हर रंग।”
इस कविता कोश में प्रस्तुत हैं वीरेन्द्र वत्स की कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ —
कविताएँ जो विचारों को छूती हैं, और ग़ज़लें जो दिल में उतर जाती हैं।

कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ

घिरो शब्द के मेघ
गगन में घम्म-घम्म घहराओ
अररतोर बरसो
अंतर का कलुष बहा ले जाओ
शब्द तुम्हीं हो ब्रह्म
आज फिर अपने भीतर झाँको
अपनी उथल-पुथल की क्षमता
नये सिरे से आँको
तुम ही बिजली तुम्हीं आग हो
तुम दीवाली तुम्हीं फाग हो
तुम ही आँधी तुम्हीं श्वास हो
तुम्हीं लक्ष्य हो तुम्हीं आस हो
तुम्हीं नींद हो तुम अँगड़ाई
तुम्हीं स्वप्न हो तुम सच्चाई
जन्म तुम्हारा हुआ खेत-खलिहानों में
पले-बढ़े मजदूरों और किसानों में
शक्ति तुम्हारी अक्षय-अगम-अपार
राह तुम्हारी देख रहा संसार

तोड़ दिये सब बन्ध काव्य के घिसे-पुराने
नये ढंग से हम जनता को चले जगाने
जनता, जो पहले से जाग रही थी, बोली-
‘जला-जलाकर आप लोग कविता की होली
डाल रहे अपनी क्यारी में शेष उसी का
भुना रहे हैं गली-गली अवशेष उसी का
जनता का प्रतिरोध आपको रास न आया
जनमानस से दूर छद्म संसार बसाया
तैर हवा में व्यर्थ लकीरें खींच रहे हैं
जड़ें काट दीं और तने को सींच रहे हैं
पहल और परिवर्तन का स्वागत है भाई
किन्तु आपने कविता की पहचान मिटाई
कविता नारा-कथा-गद्य-इतिहास नहीं है
कविता कोरा व्यंग्य हास-परिहास नहीं है
कविता प्रबल प्रवाह सत्य के भाव पक्ष का
वशीभूत होता जिससे जड़ भी समक्ष का
कविता जो मन की ऋतु का परिवर्तन कर दे
कभी स्नेह तो कभी आग अंतर में भर दे’

प्रचंड अग्निज्वाल हो
अपार शैलमाल हो
तू डर नहीं सिहर नहीं
तू राह में ठहर नहीं
ललाट यह रहे तना
तू जीत के लिए बना
तू जोश से भुजा चढ़ा
तू होश से कदम बढ़ा
गगन-गगन में गाँव हो
शिखर-शिखर पे पाँव हो
तू आँधियों से खेल कर
तू बिजलियों से मेल कर
तू कालचक्र तोड़ दे
तू रुख समय का मोड़ दे
अजेय क्रांतिवीर तू
अजेय शान्तिवीर तू

तू धधकती आग है
तू बरसता राग है
नींव है निर्माण है तू
प्रेम है बैराग है

तू मधुर मधुमास है
ज़िन्दगी की आस है
जो हृदय की पीर हर ले
वह अडिग विश्वास है

धर्म का आगार है
पुण्य का विस्तार है
ग्रीष्म में शीतल पवन है
प्यास में जलधार है

ज्ञान योगी-कर्म योगी
तू धरा की आन है
राष्ट्र का कल्याण जिसमें
तू वही अभियान है

भारती का लाल है
सज्जनों की ढाल है
विकट है विकराल है तू
दुर्जनों का काल है

पुतले भ्रष्टाचार के छल-प्रपंच में सिद्ध
नोच रहे हैं देश को राजनीति के गिद्ध

अरबों के मालिक हुए कल तक थे दरवेश।
नेता दोनों हाथ से लूट रहे हैं देश।।

बारी-बारी लुट रही जनता है मजबूर।
नेता हैं गोरी यहाँ, नेता हैं तैमूर।।

देख रहा है देश यह कैसे-कैसे दौर।
चोर-उचक्के बन गए शासन के सिरमौर।।

लल्लू जी मंत्री बने चमचे ठेकेदार।
जनता जाए भाड़ में अपना बेड़ा पार।।

सौदा किया प्रधान से, दिए करारे नोट।
पन्नी बाँटी गाँव में पलट गए सब वोट॥

सुविधाओं के सामने जनसंख्या विकराल।
सबका हिस्सा खा गये नेता और दलाल।।

बूड़ा आया गाँव में उजड़ गए सब खेत।
नेता राहत ले उड़े चलो बुकायें रेत।।

ज्ञान-ध्यान-सम्मान-सुख सबका साधन अर्थ।
पूजा करिए अर्थ की बिना अर्थ सब व्यर्थ।।

सत्य-अहिंसा त्याग-तप बीते दिन की बात।
जहाँ देखिए छद्म-छल, लूट, घात-प्रतिघात।।

जाति-धर्म, भाषा-दिशा, प्रांतवाद की मार।
टूटी-फूटी नाव है, कौन लगाये पार।।

रहा सैकड़ों साल तक हिन्दुस्तान गुलाम।
फिर भी खुली न आँख तो समझो काम तमाम।।

लोकतंत्र के नाम पर हम सब हुए अतन्त्र।
यही रहा यदि हाल तो फिर होंगे परतंत्र।।

शठ से होना चाहिए वैसा ही व्यवहार।
वरना अगली आपदा आने को तैयार।।

देश बँटा, भाषा बँटी बँटे वर्ग-समुदाय।
कैसे हों सब एक फिर मिलकर करो उपाय।।

झूठे झगड़े छोड़कर, चलो बढ़ायें ज्ञान।
मुसलमान गीता पढ़ें, हिन्दू पढ़ें कुरान॥

त्याग-अहिंसा से हमें बहुत मिल चुका मान।
राष्ट्रप्रेम के ताप से ढालें नया विहान।।

राम-कृष्ण की भूमि यह यहाँ बुद्ध का ज्ञान।
इसकी रक्षा के लिए करें लक्ष्य संधान।।

घर के भेदी बुन रहे षडयंत्रों का जाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

सना हुआ है रक्त से भारत माँ का भाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

टुच्चे नेता राष्ट्र की पगड़ी रहे उछाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

जाति-धर्म की रार में जीना हुआ मुहाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

कहीं खिंची तलवार है कहीं तनी है नाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

भ्रष्टाचारी कर रहे भारत को कंगाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

गाँव-गली में चौक पर गुंडे करें बवाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

कोई भूखा मर रहा कोई काटे माल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

करना-धरना कुछ नहीं सिर्फ बजाते गाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

जिसका गर्वोन्नत शीश युगों तक था भू पर
लहरायी जिसकी कीर्ति सितारों को छूकर
जिसके वैभव का गान सृष्टि की लय में था
जिसकी विभूतियाँ देख विश्व विस्मय में था
जिसके दर्शन की प्यास लिये पश्चिम वाले
आये गिरि-गह्वर-सिन्धु लाँघकर मतवाले
वह देश वही भारत उसको क्या हुआ आज?
सोने की चिड़िया निगल गया हा! कौन बाज?

यह देश सूर, तुलसी, कबीर, रसखानों का
विज्ञानव्रती ऋषियों का वीर जवानों का
यह देश दीन-दुर्बल मजदूर किसानों का
टूटे सपनों का, लुटे हुए अरमानों का
जब-जब जागा इनमें सुषुप्त जनमत अपार
आ गया क्रांति का परिवर्तन का महाज्वार
ढह गए राज प्रासाद, बहा शोषक समाज
मिट गयी दानवों की माया आया सुराज

ये नहीं चाहते तोड़फोड़ या रक्तपात
ये नहीं चाहते प्रतिहिंसा-प्रतिशोध-घात
पर तुम ही इनको सदा छेड़ते आये हो
इनके धीरज के साथ खेलते आये हो
इनकी हड्डी पर राजभवन की दीवारें
कब तक जोड़ेंगी और तुम्हारी सरकारें?
रोको भवनों का भार, नींव की गरमाहट-
देती है ज्वालामुखी फूटने की आहट!!

(यह कविता तीन भागों में है- परामर्श, प्रतिक्रिया और प्रयाण)

परामर्श
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
विजन वन रजनी भयंकर
क्षुब्ध शम्पा उग्र अंबर
कर रहे हर जीव के अस्तित्व का उपहास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

गर्जना करतीं हवाएँ
चीखतीं चारों दिशाएँ
मेघ के उर में कुटिल दुर्भावना का वास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

उर्मि या चल शैलमाला
व्योम से किसने उछाला
हरहराता-तप्त-फेनिल ध्वंस का उच्छ्वास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

गहन तम में आँख फाड़े
मृत्यु हिंसातुर दहाड़े
कब मिटी है भूख इसकी कब बुझी है प्यास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

भावनाओं की दुलारी
इस प्रकृति की शक्ति सारी
नाशलीला का निरंतर कर रही अभ्यास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

यह प्रणय बंधन तुम्हारा
जानता था गाँव सारा
हो चुका है वह भयावह जलचरों का वास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

सृष्टिगत सौंदर्य सारा
सहज शरणागत तुम्हारा
पट सँभालो हो न इसका प्रलय को आभास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

पीन-तनु-सुकुमार-श्यामल
स्निग्ध-शिव-निष्काम-निर्मल
गात निष्ठुर काल को क्यों दे रही सायास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

आह! यदि मैं काल होता
दूर रह तुमको सँजोता
देखता बस रूप लेकर कर्म से संन्यास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस

प्रतिक्रिया

है परीक्षा की घड़ी यह
साधना इतनी बड़ी यह
फिर निराशा ही तुम्हें क्यों आ रही है रास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस

अर्चना का दीप अंतर
जल रहा मेरा निरंतर
हो न क्यों प्रियतम समागम का मुझे विश्वास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस

काल सीमित, प्रीति अक्षय
प्रीति रहती चेतनामय
देह में चाहे चले, रुक जाय चाहे साँस
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस

वज्र-घन-आँधी-अँधेरे
सब अशुभ सौभाग्य मेरे
हाँ दुसह मधुमास, मधुमय चाँदनी का त्रास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस

दैव घन से सोम सरसे
या विषम अंगार बरसे
इस हृदय वन से नहीं जाता कभी मधुमास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस

प्रयाण

नहीं रुकी वह बाला निर्भय चली अँधेरे पथ पर
काल निशा में जैसे कोई चले मेघ के रथ पर
वह उमंग वह आस मिलन की वह अदम्य अभिलाषा
वह भावों का वेग और भोले नैनों की भाषा
मानव का संकल्प चुनौती देने चला प्रलय को
बिना विचारे जड़-चेतन के ध्वंसक महाविलय को
बीच-बीच में बिजली कौंधे पग-पग राह दिखाये
लहर-लहर अनजाने पथ पर माया जाल बिछाये
बाधाएँ सब भूल बढ़ी वह दुर्गम वन में आगे
नए स्वप्न सुकुमार-सलोने अन्तर्मन में जागे
कहाँ मिलूँगी क्या बोलूँगी कैसे प्रेम करूँगी
प्रिय की एक एक बोली पर सौ-सौ बार मरूँगी
मुझे देखते ही वह अपनी बाँहों में भर लेगा
सोचा जो इतने वर्षों से आज उसे कर लेगा
काँप उठेगी काया जब होठों को वह चूमेगा
दो प्राणों के मधुर मिलन पर सारा जग झूमेगा
वह असीम आनंद भला मैं कैसे सह पाऊँगी
और बिना उसके भी जीवित कैसे रह पाऊँगी
दिवास्वप्न के बीच अंततः आ ही गया ठिकाना
इच्छाशक्ति प्रबल थी, सिमटा पंथ अगम-अनजाना
दृश्य वहाँ का देख लगा गहरा आघात हृदय को
सह सकता है कौन स्वयं पर इतने बड़े अनय को
प्रियतम के संग नई प्रेमिका सपनों में खोई थी
आलिंगन में बँधी हुई थी कंधे पर सोई थी
सूख गये आँसू आँखों में, मुँह से बोल न फूटे
कोमल मन के सारे बंधन चीख-चीख कर टूटे
अंत नहीं यह, इसी जगह से नई राह खुलती है
बड़े लक्ष्य की ओर वही आगे चलकर मुड़ती है
किया नया संकल्प- मुझे अब विश्व प्रेम पाना है
पढ़-लिखकर पीड़ित जनता की सेवा में जाना है।

राजा के घर चौका-बर्तन करती फूलकुमारी
दो हजार तनख्वाह महीना, बची-खुची त्योहारी

हिरनी जैसी फुर्तीली है पल भर में आ जाती
हँसते-गाते राजमहल के सभी काम निबटाती

श्रम का तेज पसीना बनकर तन से छलक रहा है
हर उभार यौवन का झीने पट से झलक रहा है

बीच-बीच में राजा से बख्शीश आदि पा जाती
जोड़-तोड़कर जैसे-तैसे घर का खर्च चलाती

बूढ़ा बाप दमा का मारा खाँस रहा है घर में
घर क्या है खोता चिड़िया का बदल गया छप्पर में

रानी जगमग ज्योति-पुंज सी अपना रूप सँवारे
चले गगन में और धरा पर कभी न पाँव उतारे

नारीवादी कार्यक्रमों में यदा-कदा जाती है
जोशीले भाषण देकर सम्मान खूब पाती है

सोना-चाँदी हीरा-मोती साड़ी भव्य-सजीली
रंग और रोगन से जी भर सजती रंग-रँगीली

यह सिंगार भी राजा की आँखों को बाँध न पाता
मन का चोर मुआ निष्ठा को यहाँ-वहाँ भरमाता

राजा ने जब फूलकुमारी की तनख्वाह बढ़ाई
मालिक की करतूत मालकिन हजम नहीं कर पाई

फूलकुमारी को रानी ने फौरन मार भगाया
उसके बदले बीस साल का नौकर नया बुलाया

राजा-रानी खत्म कहानी
जाग रहे हम, सोई नानी
चलो मचायें शोर
गली में आया काला चोर

बिना काम के माल उड़ाने
दबे पाँव वह आया
ताला तोड़ा, कुंडी खोली
घर में कदम बढ़ाया
दौड़ो-दौड़ो रोको-रोको
जरा लगाकर जोर

शासन-सत्ता की गलियों में
चोर बहुत सारे हैं
उन्हें न भेजो संसद में जो
लालच के मारे हैं
जो भारत का मान बढ़ाये
जनता उसकी ओर

जाति-धर्म का ढोल पीटकर
वोट लूट लेते हैं
फिर लोगों को पाँच साल तक
दुख ही दुख देते हैं
सजग रहो, उड़ने से पहले
काटो उनकी डोर

चोरी- भ्रष्टाचार मिटाकर
नया समाज बनायें
आने वाले कल की खातिर
सपने नये सजायें
नयी-नयी रातें हों अपनी
नयी-नयी हो भोर

अजब नेता, अजब अफसर
तरक्की का अजब खाका
इन्हें ठेका, उन्हें पट्टा
यहाँ चोरी, वहाँ डाका

बजट जितना, घोटाला कर गए उससे कहीं ज्यादा
गया जो जेल प्यादा था
बचे बेदाग फिर आका

मिली है जीत कुनबे को बधाई हो-बधाई हो
जियो भैया, जियो बाबू
जियो लल्ला, जियो काका

हुकूमत क्या मिली, सारा खजाना अब इन्हीं का है
बिकी मिट्टी, बिका पानी
बिका नुक्कड़, बिका नाका

जमाना बाहुबलियों का, रखा कानून ठेंगे पर
कहीं लाठी कहीं गोली
कहीं कट्टा कहीं बाँका

वहाँ तो महफ़िलों का दौर है, प्याले छलकते हैं
यहाँ है टीस, लाचारी
सुबह से रात तक फाका

मुझे टूटना भाया

मुझे टूटना भाया
बहुत दिनों तक चंचल मन से
मिलता रहा मुक्त जन-जन से
देखे प्रेम-प्रणय के सपने
सबसे हँसा-हँसाया

प्रतिभा की निष्फल छाया में
क्षणिक अमरता की माया में
तरल उमंगों की लय देकर
मन को खूब नचाया

स्वजन अर्थ-बल-वैभव कामी
मैं बस भाव विभव का स्वामी
यही एक अभिशाप आज मैं
अपने लिए पराया

मैं जन की पीड़ा का गायक
जन का सेवक जन का नायक
पथ के कंटक देख अभी से
इतना क्यों अकुलाया
मुझे टूटना भाया

मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा
तोड़ चला विपदा की कारा
मोड़ चला जीवन की धारा
आहत मन आनंद अश्रु की लय पर मचल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा

कोई काँपा कल्पित भय से
कोई विकल हुआ विस्मय से
कोई थककर वापस लौटा कोई फिसल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा

जिस उर से घातक शम्पाएँ
लड़कर चूर-चूर हो जाएँ
वह औरों के दुख की आहट पाकर पिघल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा

यारी में सर्वस्व लुटाया
अर्थ चुका तो हुआ पराया
जो भी आया वही निकम्मा कहकर उबल पड़ा
मैं एकाकी जीवन पथ पर निर्भय निकल पड़ा

आँखों की झील से काजल की कोर तक
सावन की शाम से फागुन की भोर तक
बस तेरी याद है, बस तेरा नाम है

गलियों में फूल खिले
खुशबू को पंख लगे
सीने में हूक उठी
सोये अरमान जगे

शबनम की बूँद से लहरों के शोर तक
चाँदी की रेत से अम्बर के छोर तक
बस तेरी याद है, बस तेरा नाम है

जिस दिन से तू मेरे
सपनों में आई है
जीवन के हर पल में
तू ही समाई है

धड़कन के गीत से साँसों की डोर तक
पुरवा की थाप से आँधी के जोर तक
बस तेरी याद है, बस तेरा नाम है

ग़ज़लें

नज़र नहीं है नज़ारों की बात करते हैं
ज़मीं पे चाँद-सितारों की बात करते हैं

वो हाथ जोड़कर बस्ती को लूटने वाले
भरी सभा में सुधारों की बात करते हैं

बड़ा हसीन है उनकी ज़बान का जादू
लगा के आग बहारों की बात करते हैं

मिली कमान तो अटकी नज़र ख़ज़ाने पर
नदी सुखा के किनारों की बात करते हैं

वही गरीब बनाते हैं आम लोगों को
वही नसीब के मारों की बात करते हैं

वतन का क्या है, इसे टूटने-बिखरने दो
वो बुतकदों की, मज़ारों की बात करते हैं

किसी किताब में सिमटी हुई ग़ज़ल की तरह
न घर में बैठ तुझे लोग गुनगुनाएँगे

तू इन्क़लाब है किस्मत संवार सकती है
ये जंगबाज़ तेरी पालकी उठाएँगे

ये तेरी उम्र, तेरा जोश, ये तेरे तेवर
बुझे दिलों में नया ज़लज़ला जगाएँगे

फटी ज़मीन तो शोले उठेंगे सागर से
कहाँ तलक वो तेरा हौसला दबाएँगे

झुका-झुका के कमर तोड़ दी गई जिनकी
वो आज मिलके ज़माने का सिर झुकाएँगे

ये उबलते हुए जज़्बात कहाँ ले जाएँ
जंग करते हुए नग़मात कहाँ ले जाएँ

रोज़ आते हैं नए सब्ज़बाग आंखों में
ये सियासत के तिलिस्मात कहाँ ले जाएँ

अमीर मुल्क की मुफ़लिस जमात से पूछो
उसके हिस्से की घनी रात कहाँ ले जाएँ

हम गुनहगार हैं हमने तुम्हें चुना रहबर
अब ज़माने के सवालात कहाँ ले जाएँ

सारी दुनिया के लिए माँग लें दुआ लेकिन
घर के उलझे हुए हालात कहाँ ले जाएँ

ज़िन्दगी के आईने में अक्स अपना देखिए
उम्र के सैलाब का चढ़ना-उतरना देखिए

बालपन का वो मचलना, वो छिटकना गोद से
हर अदा पे माँ की आँखों का चमकना देखिए

वो जवानी की मोहब्बत, वो पढ़ाई का बुखार
ख़्वाहिशों का ख़्वाहिशों के साथ लड़ना देखिए

मंज़िलों की खोज में लुटता रहा जी का सुकून
इक मुक़म्मल शख़्स का तिल-तिल बिखरना देखिए

अब बुढ़ापा ले रहा है ज़िन्दगी भर का हिसाब
वक़्त का चुपचाप मुट्ठी से सरकना देखिए

आके मंज़िल पे हमने ये जाना
रास्ता ख़त्म ही नहीं होता

लाख अरमान, लाख उम्मीदें
सिलसिला ख़त्म ही नहीं होता

बाद मरने के भी कहाँ-कैसा
सोचना ख़त्म ही नहीं होता

जानो-तन में बसा है वो लेकिन
फासला ख़त्म ही नहीं होता

कितने तूफां उठे हैं राहों में
हौसला ख़त्म ही नहीं होता

आज मुफ़लिस निकल पड़े घर से
कारवां ख़त्म ही नहीं होता

कड़ी हो धूप तो खिल जाएँ गुलमोहर की तरह
सियाह रात में मिल जाएँ हम सहर की तरह

जो एक बात घुमड़ती रही घटा बनकर
उसे उतार दें धरती पे समन्दर की तरह

कदम बढ़ें तो नये रास्ते निकलते हैं
न घर में बैठिए बेकार-बेख़बर की तरह

वो रास्ता ही सही मायने में मंज़िल है
जहाँ रक़ीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह

रुला- रुला के गए दोस्त हँसाने वाले
लगा के आग गए आग बुझाने वाले

थी आरज़ू कि कभी हम भी पार उतरेंगे
डुबो के नाव गए पार लगाने वाले

करें तो कैसे करें राज़फ़ाश क़ातिल का
पड़े सुकूं से सभी जान गँवाने वाले

कोई तो बात उठे दूर तलक जो जाए
यहाँ जमा हैं फ़क़त शोर मचाने वाले

आप कुछ यूं उदास होते हैं
रेत में कश्तियाँ डुबोते हैं

ख़ुद पे इतना भी ए’तबार नहीं
गैर की गलतियाँ सँजोते हैं

लोग क्यूं आरज़ू में जन्नत की
ज़िन्दगी का सुकून खोते हैं

जब से मज़हब में आ गए काँटे
हम मोहब्बत के फूल बोते हैं

बज़्म के कहकहे बताते हैं
आप तन्हाइयों में रोते हैं

अदब से सिर झुकाए जो खड़े थे
उन्हें भी वार करना आ गया है

समेटो ज़ालिमो दूकान अपनी
उन्हें व्यापार करना आ गया है

दिलों में फड़फड़ाती आरज़ू का
उन्हें इज़हार करना आ गया है

तुम्हारी बात पर जो मर-मिटे थे
उन्हें इनकार करना आ गया है

अपने वक़्त पर अपनी ज़मीं पर
उन्हें अधिकार करना आ गया है

वीरेन्द्र वत्स

Village – Gopalpur Sarai Khwaja, Block – Karaundikala, District – Sultanpur, Uttar Pradesh, India

Virendra Vats, born on January 2, 1963, in Gopalpur Sarai Khwaja, a small village in Sultanpur district, Uttar Pradesh, is a renowned Hindi poet known for his powerful and socially aware poetry.
His writings beautifully capture the emotions of the common man, the essence of patriotism, and the rhythm of changing India.

Through his thoughtful verses, Virendra Vats has become a voice of truth, simplicity, and inspiration — connecting deeply with audiences across generations.